Saurabh Hirani

a year ago

पराए पल

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छतों को बिल्डिंगों ने खा लिया,

आँगनों को अपार्टमेंट ने चबा लिया।

बचपन का एक पल ढूँढने निकला था,
ज़िम्मेदारी के ट्रैफिक ने फिर से रास्ता भुला दिया।

शायद वो पल का पता बदल गया है,
ये सोच के मैंने सपनों का स्कूटर फिर से घुमा दिया।
घर पहुँच कर एक लंबी सी इमारत में खुद को चुनवा दिया।

पर मुझे क्या पता था, सिग्नल पे वो पल अभी भी रुका था।
मासूमियत की मोपेड को, उसका पैर पैडल कर चुका था।

देख लिया होगा मुझे शायद और जग गई होगी फिर से उम्मीद।
संभाल के रखी थी उसने, आज तक दोपहरों की रसीद।

लाइट नहीं थी, फिर भी मैंने बत्ती बुझा दी।
और देखा मैं उसे, बचपन की परछाइयों के पर्दों से।

खड़ा था आस लिए।

साला ।

अपने क़दमों को नापते हुए,
मेरी नीयत को भांपते हुए।

फ़ोन की घंटी बजी।

"साहब, पुरानी याद आई है। आपने कहा था आएगी।
आपको क्या लगता है - क्या ये घर कर पाएगी?"

मैं हँस कर बोला:

"पिछली बार वाली तो घर को मकान कर गई थी।
शिकवे के दीमक का सामान कर गई थी।"

आने दो इस पल को भी।
अपना सका तो अपना लूंगा।
वरना इसको भी दफ़ना दूंगा।

This poem is a prequel to another poem I wrote 15 years ago. 

The ending of this poem

आने दो इस पल को भी।
अपना सका तो अपना लूंगा।
वरना इसको भी दफ़ना दूंगा।

is the beginning of Unwanted visitors

Thoughts - tucked away,
Or buried alive in the graveyard of time.
I can still hear them gasping for breath.

You can also listen to the full audio version of Unwanted visitors here.

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Satyajeet Jadhav

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