Saurabh Hirani

6 months ago

This post is featured in Thinkdeli Writing Fest - Oct 24

अकेला

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घरों के बाहर पड़े जूतों की गिनती बताती हैं।

मैं कितना अकेला हूँ।

सूनी दीवारों की दरारों से मेरी गहरी पहचान बताती हैं।

मैं कितना अकेला हूँ।

बहलाया करता था मैं एक ज़माने में।

इधर-उधर की बातें और बेतुके सवालों को।

पर आजकल एक असहज चुप्पी गिरफ़्तार कर चुकी हैं।

मेरे सरकटे ख़्यालों को।

कभी-कभी सोचता हूँ - कितना अकेला हूँ मैं?

क्या अकेलेपन का कोई वज़न का सकता हैं?

क्या कोई उसकी गहराई को नाप सकता हैं?

क्या मेरा पड़ोसी मुझसे ज़्यादा अकेला हैं?

या अकेलेपन की दौड़ में मेरा आख़िरी नंबर सबसे पहला हैं?

अकेले होने से अकेलापन नहीं आता।

ये कड़वी सच्चाई कोई बड़ा क्यों नहीं बताता?

बताते हैं वो ये।

भेड़ों की भीड़ में बस जाओ।

भेड़िया शायद तुम्हें बख्श देगा।

एकजुट होकर अनन्यता को दबाओ।

समाज बना-बनाया लक्ष्य देगा।

न होगा बगावत का एहसास।

न उठेगी अकेलेपन की चीख़।

कीमत हैं तुम्हारा अंधविश्वास।

भुगतान अस्तित्व की भीख।

पर ज़िंदगी की किताब जब आख़िरी पन्ने पर आएगी।

तब अधिकारहीनता सबसे ज़्यादा अंतरंग खाएगी।

कर लो थोड़ी बगावत।

दवाई समझ के पी लो।

सरकटे ख़्यालों को जी भर के झटपटाने दो।

होगी शायद उनमें थोड़ी और जान।

दिशाहीन सपनों के पर थोड़ा और फड़फड़ाने दो।

होगा अगली उड़ान में थोड़ा और आसमान

और मैं?

हूँ मैं अकेला। अकेला ही ठीक हूँ।

समाज की नज़रों में, असामान्यता का जो प्रतीक हूँ।

इंसान नहीं हूँ मैं। तुम्हारी वो सोच हूँ।

अंधी दौड़ में ठहराव के गुनाह की ख़रोंच हूँ।

अपना लो मुझे। मुझे देखकर मेरे यार-दोस्त भी आएंगे।

क़िस्मत ने अगर साथ दिया, तो पूरे समाज को अकेला बनाएंगे।

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Satyajeet Jadhavjaee jadhavsanika joshi

Comments ( 1 )

Satyajeet Jadhav

6 months ago

uff kya likha hai! Loved the transition from melancholy to hope. and could relate to some of the things personally.

Participate in the conversation.

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Saurabh Hirani

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